भाषायी विकास
भाषा प्राणी के भाव अभिव्यक्त करने का माध्यम है।
यह कहना गलत ना होगा कि मनुष्य पशुओं से इसलिए श्रेष्ठ है क्योंकि उसके पास एक भाषा है जिसे लोग समझ सकते हैं। यद्यपि पशु और पक्षियों की भी कोई ना कोई भाषा अवश्य होती है लेकिन उसे कोई समझ नहीं पाता है जो व्यक्ति गूंगा होता है वह अपने भावों को समझाने के लिए शरीर के अंगों का सहारा लेता है जिसे उसकी शरीर की भाषा कहा जाता है भाषा के माध्यम से मनुष्य समाज में अपना स्थान बनाता है ।उसके व्यक्तित्व के निर्माण में भाषा की महत्वपूर्ण भूमिका होती है वास्तव में भाषा भाव के संप्रेषण का माध्यमहै। भाषा बौद्धिक क्षमता को भी अभिव्यक्त करती है
हरलाक के अनुसार "भाषा में संप्रेषण के वे सभी साधन आते हैं जिसमें विचारों और भावों को प्रतिकात्मक बना दिया जाता है जिससे कि अपने विचारों और भावों को दूसरे से अर्थपूर्ण ढंग से कहा जा सके"।
भाषा विकास की अवस्थाएं
भाषा विकास की अवस्थाएं सुविधा की दृष्टि से दो प्रकार के होते हैं
1. भाषा विकास का प्रारंभिक रूप
2.भाषा विकास का उत्तरकालीन रूप
1. भाषा विकास का प्रारंभिक रूप
वास्तविक भाषा अभिव्यक्ति के पहले शिशुओं को कई स्थितियों से गुजरना पड़ता है जो निम्नलिखित हैं
क्रंदन रोना बच्चे की पहली आवाज है जो जन्म के समय होती है यह ध्वनि स्वर यंत्रों से स्वतः निकलती है तथा अनियंत्रित और अनियमित होती हैं। बच्चे लगभग 2 सप्ताह अकारण और कई बार होते हैं रोते समय उनकी आंख में आंसू नहीं आता है लेकिन स्वास्थ्य और नाड़ी की गति बढ़ जाती हैं आयु बढ़ने के साथ क्रंदन में कमी आती जाती है शिशु के रोने के कई कारण हो सकते हैं जिसमें भूख मल मूत्र विसर्जन कब्ज आदि प्रमुख है ।
केल्टिंग का विचार है कि भोजन के पहले और सोने के पहले बच्चे अधिक रोते हैं रोने का कारण शारीरिक कष्ट तीव्र उत्तेजना निद्रा में व्यवधान खेल सामग्री का हटना या निद्रा व्यवधान भी होता है ।
वाटसन के अनुसार शिशु के रोने का प्रमुख कारण भूख भय तथा थकान होती है
कोहलर के अनुसार बच्चों के रोने का कारण उच्च स्वर तीव्र प्रकाश शारीरिक कष्ट थकान निद्रा में बाधा भूख तंग कपड़े के खिलौने छीनना बताए हैं।
बलबलाना यह अवस्था 3 माह से 8 माह तक देखी जाती है इस अवस्था में बच्चे विचित्र एवं रोचक ध्वनिया गले से निकालते हैं। शिशु की ये ध्वनिया निरर्थक होती हैं। माता-पिता इसे सुनकर आनंदित होते है। यहीं नहीं कभी-कभी ये इनका अर्थ भी लगाने लगते हैं, जो गलत है। यह दुनिया आयु बढ़ने के साथ समाप्त हो जाती हैं इन धनियों से विचारों का संप्रेषण संभव नहीं है लेकिन यह भी सत्य है कि यह भाषा विकास की प्रक्रिया है बल्बलाने से स्वर यंत्र परिपक्व होते हैं।
राउथ का विचार था कि जो बच्चे मलवाला ना शीघ्र प्रारंभ करते हैं और अधिक समय तक करते हैं और जल्दी बोलना सीख जाते हैं बाल बनाने में स्वर अ,आ,इ,ए ऊ,अं,ओ,प्रदर्शित होते हैं छठे माह में स्वर तथा व्यंजन को मिलाकर बोलने का प्रयास करते हैं
जैसे या, मां ,ना ,का आदि। बाद में बच्चे इसे बार-बार दोहराकर अभ्यास करते हैं परंतु इसका अर्थ नहीं समझते हैं इसे ही बल बुलाने की वास्तविक अवस्था कहा जाता है बल्ब जलाना एक वाचिक कसरत कही जा सकती है जो स्वैच्छिक होती है कुछ बच्चों में बल्ब जलाने की क्रिया दूसरे माह से ही प्रारंभ हो जाती है इसके बाद तीव्रता से बढ़ती है छठे और आठवें माह में अपने उच्च सीमा पर पहुंच जाते हैं बाद में धीरे-धीरे पर बुलाना शब्दों में बदल जाता है कि कुछ बच्चों में या क्रिया दूसरे वर्ष के प्रारंभ में महीनों तक चलती रहती है।
हाव-भाव या संकेत अपनी बात को समझाने के लिए बच्चे तरह-तरह के हावभाव करते हैं इस क्रिया में वे शरीर के किसी भाग या पूरे शरीर का प्रयोग करते हैं शिशु स्टूल पर रखा हुआ खिलौना पाना चाहता है इसलिए उसका सहारा लेकर खड़ा होता है लेकिन यदि उसमें असफल होता है तो रोने लगता है दूध के लिए मचलने लगता है गोद में जाने के लिए हाथ को फैलाता है कुछ चीजों को पाने के लिए हाथ दिखाकर संकेत करता है पेट भर जाने पर दूध पीना छोड़ देता है तथा मुस्कुराने लगता है बिना इच्छा के गोद लेने पर पूरा शरीर घुमा देता है यह करने लगता है इन व्यवहार एवं संकेतों से माता-पिता बच्चों के मनोभावों को आसानी से जान लेते हैं भाव संकेत बच्चों की एक प्रकार की भाषा है यह क्रिया बोलने के पहले तक चलती रहती है बच्चों के सभी संकेतों का कुछ ना कुछ अर्थ होता है।
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